बड़ी पुरानी ये रिवायत है,
सदियों इसे चलना है ।
आप ब्रह्मा आप विष्णू
सदा अहद वाहिद रहना है।
आप आलिम आप फाज़िल
सब अधूरे आप ही से कामिल।
इस दुनिया में आने के बाद हम कई लोगों से मिलते हैं, कई से बिछड़ते हैं, कई तो हमारे साथ क़दम क़दम पर होते हैं , और कई हमारा साया बने हमारे पीछे हरदम तैनात रहते हैं। हमारे पीछे रहने वाले वो कुछ लोग जो हमें संभालते हैं, निखारते हैं वही कुछ हमारे गुरु होते हैं।
हमारे कच्चे रूप-स्वरूप, दृष्टि और नज़रिए को वो एक आयाम देते हैं, ढालते हैं। हमारे भारतीय संस्कृति और गंगा जमुनी तहज़ीब में भी गुरु या उस्ताद का मुक़ाम आला है। गुरुकुल की परम्पराओं से शुरू हुआ देश, अब गुरुओं के कुछ हुक्मों की तामील करने से हिचकिचाता है ।
"गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय।।
गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु में सारे जग समाए"
बचपन से किताबों में पढ़ा था, वो शायद पन्नों में ही दबे -पड़े , कुचले रह गए। हालांकि आज हर रोज़ जो असलियत दिखती है, उसपर बहुत हँसी आती है। मेरे वाक्य और बातें भले ही कटाछ लगें, लेकिन सच की परतों को हटा कर भी देखें तो यही सत्य दिखेगा।
ईश्वर संरचना करते हैं हमारी पर हमारे व्यक्तित्व की खोज एक गुरु करते हैं। जब कोई बच्चा बाहरी दुनिया में अपना क़दम रखता है तब उसके पहले पथप्रदर्शक गुरु ही होते हैं। वो हमें रास्ता दिखाते हैं, रस्तों के कांटों से मिलाते हैं और मंज़िल तक पहुचने का हौसला भी दिलाते हैं।
बचपन में और किसी बात की जानकारी हो या ना हो हमें अपने शिक्षकों की इज़्ज़त करना ज़रूर बतलाया जाता है। हमें एहसास दिलाया जाता है कि हम उम्र के किसी भी पड़ाव पर पहुँचे हमारा फ़र्ज़ बनता है के हम अपने गुरुओं का सम्मान करें।लेकिन बहुत दफ़े अपने और फ़रायज़ की तरह हम इस फ़र्ज़ से भी भटक जाते हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि जितने सम्मान की आवश्यकता उन्हें होती है हम उसका आधा भी उन्हें अता नहीं कर पाते। द्रोणाचार्य और एकलव्य जैसी गुरु शिष्य परंपरा तो शायद ही अब कहीं दिखने मिलती है। वो ज़माना कुछ और था और ये ज़माना कुछ और है। पिछले साल तक कि व्यवस्था में शिक्षक और बच्चे के बीच एक संबध पैदा हो जाता था लेकिन आजकल के डिजिटल परिवेश ने उसे भी तहस नहस कर दिया है। वापस उस गुरु शिष्य परंपरा की तरफ़ लौटना अब नामुमकिन ही लगता है।
बेशक, आज भी, किसी किसी अहम दिन गुरुओं को हम सम्मान के कुछ अंश दे देते हैं जिससे हमें लगता है कि हम भारतीयता से जुड़े हुए हैं लेकिन ठीक उसके दूसरे दिन से ही हम उन्हें अपमानित करना शुरू कर देते हैं, हम भूल जाते हैं की उनका डाँटना उनका हक़ है, और उनकी बात को सुनना हमारा फ़र्ज़। एक गुरु के जैसा कोई दाता नहीं और शिष्य के जैसा कोई याचक नहीं।
थे कभी एक कली हम,
है खिलाया आपने ।
कई बूंदों से मिलकर
एक दरिया बनाया आपने।
कलम थामने से ले कर
कलमा पढ़ना सिखलाया है।
कमाल की हस्ती बता कर
कमाल का हमें बनाया है।
शाम की उस रौशनी के झूठ से बचाते हमे
उस सवेरे की असलियत आपने ही बताया है,
छोटे उम्र मे भी आप ही रहगुजर बने
हर उम्र मे अपको ही रहनुमा बनाया है।
जो सुख गुरु के आगे शीष झुकाकर आशीर्वाद लेने में था , अब वो महज़ व्हैट्सऐप तक सीमित हो चुकी है। ना जाने हमने कब सम्मान करना छोड़ दिया और कब ख़ुद के अस्तित्व को इतना बड़ा समझने लगें की हम अपने उस्ताद, गुरु और शिक्षक से इतने दूर हो गए। आज जहाँ भी गुरु शिष्य की वही पुरानी परंपरा देखने मिले, हमें उसे मिसाल के तौर पर हमेशा याद रखना चाहिए।
-सिल्विया इरशाद
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