"साल-हा-साल और एक लम्हा, कोई भी तो न इनमें बल आया
खुद ही एक दर पे मैंने दस्तक दी, खुद ही लड़का सा मैं निकल आया"
~ जौन एलिया
आज के समय में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो साहित्य से जुड़ा हुआ हो और जौन एलिया के नाम से अपरिचित हो। जौन साहब उन कुछ शायरों में से हैं जिन्हें वो लोग भी पढ़ते हैं जो उर्दू पढ़ना और लिखना नहीं जानते। उनके अंघडपन और बेबाक़ लहजे से लोग बहुत प्रभावित रहे हैं पर उनकी ज़िंदगी का एक ऐसा पहलू हैं जो शायद लोगों के सामने तो रहा पर फिर भी पाठकों के दिलो से छिपा रह गया।
जौन एलिया ने अपने दीबाचे में ज़िक्र किया हैं कि पहले जौन एलिया अपना नाम “जौन फ़उज़वी” लिखा करते थे जिसमें “फ़उज़वी” शब्द का मतलब अराजकतावादी (anarchist) मालूम पड़ता हैं। एक ऐसा व्यक्ति जो किसी संस्था या व्यवस्था पर भरोसा ना करे।
"आख़िर हैं कौन जो किसी पल कह सके ये बात
अल्लाह और तमाम बशर ख़ैरियत से हैं"
इसके साथ- साथ उनकी नज़्मों और ग़ज़लों में हमें अस्तित्ववाद भी देखने को मिला। ऐसा बहुत कम हुआ कि उर्दू और हिंदी साहित्य में कोई इन मुद्दों से झूँजते हुए रचना करे और ख़ुशी ख़ुशी निकल आए। मानो वो इस दौर में अपने होने से परेशान से ज़्यादा हैरान हैं।
"किसको फ़ुरसत जो मुझसे बहस करे और साबित करे
मेरा वजूद, मेरी ज़िंदगी के लिए ज़रूरी हैं"
इनके हैरानी इन शेरों में साफ़ दिखाई पड़ती हैं। साथ साथ वो अपने उन बातों को सामने लाने से बिलकुल झिझक्ते नहीं हैं जो बाक़ी लोग अपने बारे में सोचने पर मजबूर हो। उनकी शायरीयो में दर्द से ज़्यादा सचाई झलकती हैं ।
"अपने अंदर हँसता हूँ मैं और बहुत शरमाता हूँ
ख़ून भी थूका सच-मुच थूका और ये सब चालाकी थी"
जैसे जौन एक मिसरे में बताते हैं कि उनके अंदर खुदा रहकर गए हैं। खुदा या भगवान माना जाता हैं ऐसी ही जगह रह सकते हैं जो पवित्र हो या बेहद पाक हो। साथ के साथ वो ये भी कह देते हैं कि उनके अंदर कोई ज़ख़्मी भी रहकर गया हैं। ये ज़ख़्मी कौन हैं? अगर हम इस नज़रिये से देखे कि लोगों की मानसिक स्तिथी कुछ इस प्रकार होती हैं कि वो किसी को ख़ुश देखते हैं तो उन्हें भी ख़ुशी महसूस होने लगती हैं और अगर वो किसी को रोते हुए देखते हैं तो वो भी अंदर उदासी महसूस करने लगते हैं। उनकी पंक्ति में वो अपनी उदासी का कारण उस ज़ख़्मी को बता रहे हैं जो उनके अंदर रहाँ, जिसके वजह से वो निरंतर उदासी से झुँझते रहे।
"इतना ख़ाली था अंदरु मेरा, कुछ दिनो तो खुदा रहा मुझमे
मुझमे आकर गया था एक ज़ख़्मी जाने कब तक पड़ा रहाँ मुझमे"
पाकिस्तान के लुग़ध कमिटी के औंधा-धार आदमी रहे जौन, अपनी शायरिया लोगों को ख़ुशी देने के लिए बिलकुल नहीं लिखते थे। वो अपने अंदर की जुँझलाहट से लड़कर ये काम करते रहे जो उनके मुशायरों में साफ़ दिखता भी था। हीब्रू के साथ-साथ संस्कृत उन्होंने पढ़ी पर ज़िंदगी के उन पहलू का समझ ना सके जिसका सवाल आगे तक अंदर रहाँ। जैसे कि हम क्यूँ जी रहे हैं? क्या इसी को जीना कहते हैं? क्या हम ऐसे ही मार जाएँगे?
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