लोकतंत्र और जॉर्ज ओरवेल- उनके शब्दों में Urdu Bazaar

लोकतंत्र और जॉर्ज ओरवेल- उनके शब्दों में

" ताकत को तभी हासिल किया जाता है जब उसे छोड़ने की कोई मंशा न हो।"

जॉर्ज ऑरवेल

 

जब-जब दुनिया में क्रांति की लहर चली है तब- तब जॉर्ज ऑरवेल की दो किताबों '1984' और 'एनिमल फॉर्म' का जिक्र हुआ है।  

 

एरिक औरथर ब्लेजर जिनका कल्पित नाम जॉर्ज ऑरवेल था उनका जन्म भारत के छोटे से गांव मोतिहारी, बिहार में 25 जून 1903 को  हुआ।  उनके पिता भारतीय सिविल सेवा में अफीम विभाग में काम करते थे। जब वह 1 साल के थे तो उनकी माताजी उनको उनकी बहनों के साथ इंग्लैंड वापस ले गई। उनका अधिकांश समय इंग्लैंड में पढ़ाई के साथ ही गुज़रा

 

1992 में वह इंडियन इंपीरियल पुलिस में भर्ती होकर बर्मा नौकरी करने चले गए। साढे़ पांच साल सेवा करने के बाद उन्होंने पुलिस की नौकरी से रिज़ाइन कर दिया ताकि वह लेखक बन सके। बर्मा में अपने अनुभव को बयान करते हुए उन्होंने अपनी पहली किताब 'डाउन एंड आउट इन पेरिस एंड लंदन' लिखी। इस दौरान वह कभी लंदन और कभी पेरिस में रहे जहां पर उन्होंने या तो अध्यापक की नौकरी की या फिर पुरानी किताबों की दुकान पर काम किया। उसके बाद उन्होंने स्पेनिश सिविल वार और सेकंड वर्ल्ड वॉर में बतौर सैनिक हिस्सा लिया।

 

उन्होंने मार्च 1943 में 'एनिमल फॉर्म' नामक किताब पर काम करना शुरू किया जो कि बहुत जद्दोजहद के बाद सन 1945 अगस्त में ब्रिटेन में पब्लिश हुई। उनकी यह किताब खेत के जानवरों पर आधारित है जो की अपने किसान मालिकों का विरोध करते हैं और अपनी बराबरी और खुशहाली के हक की मांग रखते हैं। पर उनकी यह क्रांति की लड़ाई धीरे-धीरे तानाशाही में तब्दील हो जाती है जो कि अपने पुराने इंसान मालिकों से भी ज्यादा खतरनाक और निर्दयी हो जाती है। पर अंत में खेत की हालत इतनी बुरी हो जाती कि वह बिल्कुल खेती के लायक नहीं रहता। उन्होंने यह किताब 1917 के रशियन रिवॉल्यूशन एवं सोवियत इरा एस्टेलिन पर आधारित की है। वह तानाशाही के बिलकुल खिलाफ थे और लोकतंत्र के बहुत बड़े समर्थक थे।

 

उसके करीब 5 साल बाद जॉर्ज ऑरवेल ने '1984' नामक किताब लिखी जिसमें एक तानाशाही सरकार लोगों की सोच और उनकी रोज के चाल चलन में दखल देती है। यह तानाशाही सरकार झूठ फरेब, निगरानी, गलत सूचना और छल योजना से प्राचीन काल को अपने फायदे अनुसार बदलकर ताकत में रहने की फिराक में रहती है। स्वतंत्र सोच के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है। इस किताब में सरकार का केवल एक ही मकसद है ताकत में रहना, अपनी गद्दी नहीं छोड़ना और वह इसके लिए कोई भी हद पार करने को तैयार रहती है। सरकार अपनी बात को सच बताने के लिए वर्तमान भी बदलने को तैयार हो जाती है और उसको सच के रूप में पेश करती है। इस किताब के नायक विलबर स्मिथ हैं जो कि सच्चाई के विभाग में एक छोटे से पद पर हैं। सच्चाई और शराफत की तलाश में वह सरकार से छुप-छुप कर विरोध करते हैं वही सरकार जो झूठ को सच में तब्दील करने की पुरजोर ताकत लगाती है। स्मिथ को जूलिया नाम कि एक औरत से मोहब्बत हो जाती है लेकिन वह पुलिस द्वारा पकड़े जाते हैं जिसके बाद उनको जेल में कैद कर लिया जाता है उन पर जुल्म किए जाते हैं और उनकी सोच और रुह को धीरे-धीरे सरकारी कठपुतली बनाने की कोशिश की जाती है। और यह तब तक किया जाता है जब तक उनके शरीर और आत्मा में जो सरकार की तरफ घृणा थी वह प्यार में तब्दील न हो जाए।

 

इन दोनों किताबों के माधयम  से वह यही कहना चाहते थे कि ताकत की वह गद्दी अगर किसी के हाथ लग जाए तो उसे छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है और धीरे-धीरे जो भी उनके खिलाफ बोलता है उन्हें या तो खत्म किया जाता है या तो उनकी सोच को इस तरह बदला जाता है कि वह सरकार की हर बात बिना सोचे समझे कबूल करें। वह यह भी कहना चाहते थे कि तानाशाही में अनेकों खराबियां हैं और लोकतंत्र ही एक ऐसा मुकाम है जहां हर एक देशवासी की आवाज़ सुनी जाती है और उनके द्वारा चुने गए नेतृत्व उनकी सेवा करते हैं और देश को आगे बढ़ाते हैं।

 

जॉर्ज ऑरवेल की यह दो किताबें 62 भाषाओं में अनुवादित की गयी हैं और उनकी करोड़ो कापियां बिक चुकी हैं

 

इन दो किताबों के अलावा उन्होंने और भी बहुत सारी किताबें लिखी हैं जैसे कि 'डाउन एंड आउट इन पैरिस एंड लंदन', 'मैं क्यों लिखता हूं', 'बर्मीज़  डे', 'सॉरी कला एक प्रचार है' एवं अन्य किताबें। उन्होंने बीबीसी रेडियो में भी बहुत काम किया जहां पर उन्होंने दिग्गज लेखकों जैसे टी. एस. इलियट, ई .एम. फॉरस्टर, अहमद अली, मुल्क राज आनंद जैसे अन्य लेखकों के साथ बातचीत की।

 

एक वक़्त के बाद उनकी टीबी की बीमारी  उन्हें काफी तकलीफ़ देने लगी जिसकी वजह से उन्हें हस्पताल में अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और उनकी 21 जनवरी को 46 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गयी। भारतीय सरकार ने 2015 में  उनके काम की प्रशंसा करते हुए मोतिहारी में उनके घर को एक संग्रहालय में तब्दील कर दिया। 'एनिमल फॉर्म' और '1984' लिखी गई किताबें 70 साल बावजूद आज भी प्रासंगिक लगती हैं। इनकी लिखी गई किताबों की जो महिमा है वह बयान करना बहुत मुश्किल है लेकिन जब आप इन दो किताबों को पढ़ेंगे तो आप समझ पाएंगे कि आज के समय में भी यह कितनी सटीक हैं।

 

किसी भी मुल्क में जब तक देशवासियों द्वारा चुनी गई सरकार देश के भले के नाम पर अपनी जेबें भारी करती है तब तक जॉर्ज ऑरवेल की लिखी गई किताबें 'एनिमल फॉर्म' और '1984' की प्रासंगिकता बनी रहेगी । 

 

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