फ़िज़ा में बहने वाली हवा का असर अमूमन सभी अफ़राद पर पड़ता है। हवा सर्द हो या गर्म, तेज़ हो या धीमी, बह कर गुज़र जाने वाली हो या फिर ठहर जाने वाली हो, ना चाहते हुए भी उससे इंसान मुतासिर हो ही जाता है। ठीक उसी तरह जब हवाओं में सिर्फ़ और सिर्फ़ सांप्रदायिकता फैलने लगे तो लगभग हर इंसान के तन और मन में नफ़रत भरने लगती है। इस हवा की रफ़्तार इतनी तेज़ होती है कि एक थपेड़े में लाखों लाख लोगों को अपनी चपेट में ले लेती है। हम बुत बने खड़े रह जाते हैं और पता भी नहीं चलता कब हम साम्प्रदायिक हो जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि यह उबाल किसी एक ख़ास दौर में आता है बल्कि यह हर दौर में हर तरह के लोगों के साथ होकर गुज़रता है। साम्प्रदायिकता एक अदृश्य औज़ार होती है जो कि इतनी हल्का होती है कि खोखले मन में आसानी से बैठ जाती है।
मगर यह जानकर ताज्जुब होता है कि इंसान ख़ुद इस तरह के औज़ारों को पैदा करता है और इसका ग़लत इस्तेमाल करके सबके ज़ेहन में भर देता है। इसका सबसे बुरा प्रभाव उन लोगों पर पड़ता है जो अपने धर्म को बिना पढ़े उससे ज़्यादा जुड़े होते हैं।
ऐसा इसलिए क्योंकि अक्सर, हिंसा या साम्प्रदायिकता को धर्म और मज़हब ही चाबी देते हैं। एक तरह से हम कह सकते हैं कि धर्म ही साम्प्रदायिकता का ख़रीददार होता है। फिर धीरे धीरे यह ख़रीदी हुई नफ़रत हर दिमाग़ में घर कर जाती है। अलबत्ता, हिंसा और साम्प्रदायिकता बहुत महंगे होते हैं, क्योंकि इसमें कई लोगों के ख़ून बहते हैं, घर टूटते हैं, भरोसा टूटता है और ज़िन्दगी बर्बाद होती है, लेकिन यह प्रेम और अच्छाई की जगह बड़ी आसानी से ले लेती है। शायद इसलिए कि हम आज तक मोहब्बत में पक्के नहीं हो सके हैं। मोहब्बत अचानक, बिना सोचे समझे हो जाती है लेकिन साम्प्रदायिकता एक सोची समझी साज़िश का अंजाम होता है। धर्म के मुंहबोले ठेकेदार एक धर्म को अगले धर्म से ज़्यादा क़ाबिल समझने लगते हैं और अपनी इसी सोच को हवा देकर बड़े पैमाने पर ले आते हैं जिससे नफ़रत की चिंगारी भड़क पड़ती है। यह कारवां आगे बढ़ता जाता है और लोग बिना समझ लगाए इसमें जुड़ते जाते हैं। हम और आप ये कहकर इस बात को टाल सकते हैं कि इंसान बुरी ताक़तों की तरफ़ ज़्यादा झुकता है इसीलिए अपने अंदर नफ़रत और साम्प्रदायिकता को भर लेता है मगर अपनी नफ़्स को क़ाबू करने पर ही हम सही मायने में इंसान कहला पाते हैं, जो अभी हमसे नहीं हो पाता है।
अपने अंदर वहशी ताक़तों को डेरा देकर, इंसान खुद को अपने धर्म से जुदा कर लेता है, क्यूंकि इस दुनिया का हर मज़हब, पैग़ाम ए मोहब्बत देता है। शायद हमने सालों पहले ही इस सच्चाई को अपने फ़ायदे के लिए, बड़े क़ायदे से दफ़्न कर दिया। हम इंसानो से मोहब्बत ना करके, दुश्मनी को अपनाने लगे हैं। दरअसल हम मोहब्बत करना भूल गए हैं। जब किसी भी इंसान के इर्द-गिर्द बहने वाली हवाओं में बदबू फैलने लगती है तब वह अपने हाथों से अपनी नाक को छुपाकर उस हवा के गुज़र जाने का इंतजार करता है, ठीक इसी तरह जब बुराइयाँ फैलने लगे तो हर शख़्स को उससे बचने का उपाय ढूँढना चहिये। और उसी जगह, अपने नफ़्स में मोहब्बत और प्रेम भरना चाहिए, नज़रिए में अच्छा इख़लाक़ लाना चाहिए और उसी से सारा मंज़र देखना चाहिए।
वक़्त की गुज़ारिश है कि हम दोबारा मोहब्बत करना सीख लें।
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