यह उपन्यास लम्बे कालखंड, लगभग चार सौ साल, के दौरान एक परिवार की कहानी है । इसमें मौखिक परंपरा, कहीं-कहीं वातावरण बनाने के लिए इतिहास और कहीं निजी अनुभवों का सम्मिश्रण है । एक तरह से यह लम्बा बयान है जो पात्र स्वयं देते हैं । लेखक भी एक द्रष्टा है । पात्र न तो उसके बनाए हुए हैं और न उसके वश में हैं । अपनी गति और स्तिथियों के अनुसार वे जो अनुभव करते हैं, जैसा व्यवहार करते हैं, वह उपन्यास में उन्ही की जुबानी आया है । एक तरह से इस उपन्यास को शास्त्रीय परिभाषा के अंतर्गत भी नहीं रखा जा सकता क्योंकि इसमें वह एकसूत्रता नहीं है जो प्रायः उपन्यासों में होती है । यदि इसका कोई सूत्र है तो वह जीवन है जो लगातार बदल रहा है और नए-नए सांचों में ढल रहा है । लम्बे विवरण और संवाद या पात्रों की सोच उन्हें उधेड़ती चली जाती है । अच्छा क्या है ? बुरा क्या है ? जीवन जीने का सही तरीका क्या है ? जीवन क्या है ? वे लोग कैसे थे जिनकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती ? -आदि सवालों के जवाब उपन्यास नहीं देता, न उन पर कोई 'वल्यू जजमेंट' देता है । वह केवल पात्रों और परिस्थितियों को उद्घाटित करने में ही व्यस्त है । सात आसमान भारत के सामंती समाज के कई युगों को उद्घाटित करता है । इसके साथ-साथ हर युग के मनुष्य और उसके सरोकारों को समझना ही उपन्यास का विषय है । न तो इसमें किसी को गौरवान्वित किया गया है और न किसी को निंदनीय माना गया है । कहीं मानवीय सम्बन्ध बहुत सशक्त और गहरे दिखाई देते हैं तो कहीं पतनशीलता की चरम सीमा तक पहुँच गए हैं ।
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