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Chokherbali

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कॉलेज अभी खुला था । इसीलिये महेन्द्र की ज्यादा दिन काशी में रहने की गुंजाइश न थी । लेकिन सख्त बीमारी के बाद अच्छी आबोहवा में सेहत सुधरने की जो तृप्ति होती है, काशी में अन्नपूर्णा के पास महेन्द्र को हर रोज़ उसी तृप्ति का अनुभव हो रहा था, लिहाज़ा दिन बीतने लगे । अपने आप ही से विरोध की जो स्थिति हो गयी थी, वह मिट गयी । कई दिनों तक अन्नपूर्णा के साथ रहकर दुनियादारी की जिम्मेदारी ऐसी सहज और सुख देने वाली लगी कि महेन्द्र को उनके हौआ लगने की पिछली बात हँसी उड़ाने जैसी लगी । उसे लगा कि बिनोदिनी कुछ नहीं । यहाँ तक कि उसकी शक्ल भी वह साफ़-साफ़ याद नहीं कर पाता था । आखिरकार बहुत सख्ती से महेन्द्र मन–ही–मन बोला, ‘आशा को मेरे हृदय से बाल–भर भी खिसका सके, ऐसा तो मैं किसी को, कहीं भी नहीं देख पाता ।’

उसने अन्नपूर्णा से कहा, ‘‘चाची, मेरे कॉलेज का हर्ज हो रहा है, अब इस बार तो मैं चलूँ! तुम संसार की माया छोड़कर यहाँ आ बसी हो अकेले में, फिर भी अनुमति दो कि बीच–बीच में तुम्हारे चरणों की धूल ले लिया करूँ!’’

काशी से लौटकर महेन्द्र ने आशा को जब मौसी के भेजे गये स्नेहोपहार–एक सिंदूर की डिबिया और सफेद पत्थर का एक लोटा–दिये तो उसकी आँखों से आँसू बहने लगे । मौसी का वह प्यार भरा सब्र और उन पर अपनी तथा सास की खट–पट की बात याद आते ही उसका दिल बेचैन हो उठा । उसने महेन्द्र से कहा, ‘‘बड़ी इच्छा हो रही है कि एक बार मैं भी काशी जाऊँ और मौसी से माफी तथा पैरों की धूल ले आऊँ । क्या यह मुमकिन नहीं ?’’

महेन्द्र ने आशा के मन के दर्द को समझा और इस बात पर राजी भी हुआ कि वह कुछ दिनों के लिए अपनी मौसी के पास जाये । लेकिन फिर अपनी पढ़ाई का नुकसान करके खुद उसे काशी ले जाने में उसे हिचक होने लगी ।

–उपन्यास अंश


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