'आकारों के आसपास' की कहानियों को पढ़कर कुछ ऐसा आस्वाद मिलता है जो आम तौर पर आज की कहानियों से सुखद रूप में अलग है ! एक तरह से इन कहानियों की दुनिया कोई खास निजी दुनिया नहीं है, इनमें भी रोजमर्रा की जिंदगी के ही आम परिचित अनुभवों को पेश किया गया हैं ! मगर उन्हें देखनेवाली नजर, उसके कोण और इन दोनों के कारण उभरनेवाले रूप और भाषाई संगठन का फर्क इतना बड़ा है कि इन कहानियों की दुनिया एकदम विशिष्ट और विस्मयकारी जान पड़ती है, जिसमें किसी-न-किसी परिचित सम्बन्ध, अनुभव या रूख का या तो कोई अंतर्विरोध या नया अर्थ खुल जाता है, या इसकी कोई नयी परत उभर आती है-जैसा अक्सर कविता के बिम्बों से हुआ करता है ! कोई अजब नहीं कि इन कहानियों में यथार्थ और फेंटेसी के बीच लगातार आवाजाही है ! फेंटेसी के साथ-साथ कुंवर नारायण अपनी बात कहने के लिए तीखे व्यंग्य की बजे हलकी विडम्बना या 'आयरनी' का इस्तेमाल अधिक करते हैं ! इसी से उनके यहाँ फूहड़ अतिरंजना या अति-नाटकीयता नहीं है, एक तरह का सुरोचिपूर्ण संवेदनशील निजीपन है ! दरअसल, ये कहानियां काफी फैले हुए फलक पा अनेक मानवीय नैतिक संबंधों, प्रश्नों और मूल्यों को जांचने, उधेड़ने और परिभाषित करने की कोशिश करती हैं, किसी क्रान्तिकारी मुद्रा में नहीं, बल्कि असलियत की बेझिझक निजी पहचान के इरादे से !
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