Description
‘अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो’ मामूली नाचने-गानेवाली दो बहनों की कहानी है, जो बार-बार मर्दों के छलावों का शिकार होती हैं ! फिर भी यह उपन्यास जागीरदार घरानों के आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक खोखलेपन को भी जिस तरह उभारकर सामने लाता है, उसकी मिसाल उर्दू साहित्य में मिलना कठिन है ! एक जागीरदार घराने के आगा फरहाद बकोल कूद पच्चीस साल के बाद भी रश्के-कमर को भूल नहीं पते और हालात का सितम यह की उसके लिए बंदोबस्त करते हैं तो कुछेक गजलों का ताकि ‘अगर तुम वापस आओ और मुशायरो में मदऊ (आमंत्रित) किया जाय तो ये गजलें तुम्हारे काम आएँगी !’ आखिर सबकुछ लुटने के बाद रश्के-कमर के पास बचता है तो बस यही की ‘कुर्तो की तुरपाई फी कुरता दस पैसे....’ खोखलापन और दिखावा-जागीरदार तबके की इस त्रासदी को सामने लेन का काम ‘दिलरुबा’ उपन्यास भी करता है ! मगर विरोधाभास यह है कि समाज बदल रहा है और यह तबका भी इस बदलाव से अछूता नहीं रह सकता ! यहाँ लेखिका ने प्रतीक इस्तेमाल किया है फिल्म उद्योग का, जिसके बारे में इस तबके की नौजवान पीढ़ी भी उस विरोध-भावना से मुक्त है जो उनके बुजुर्गों में पाई जाती थी !