माई, हमारा शहर उस बरस, तिरोहित, वैराग्य एवं ख़ाली जगह जैसी विविध व सशक्त कृतियों की मार्फ़ेत पिछले पन्द्रह सालों में एक विशिष्ट पहचान बनी है गीतांजलि श्री की हिन्दी कथा-जगत में। अनुगूँज में संकलित इन दस कहानियों से ही शुरू हुआ था इस पहचान का सिलसिला। एक नई संवेदना जो विद्रोह और प्रतिरोध को उजागर करते वक्त भी उनको कमज़ोर बनाती हताशा को अनदेखा नहीं करती, इशारों और बिम्बों के सहारे चित्रण करने वाला शिल्प, और शिक्षित वर्ग की आधुनिक मानसिकता को दिखाती उनकी बोलचाल की भाषा, ऐसे तत्त्वों से बनती है गीतांजलि श्री की लेखकीय पहचान। यूँ तो इन कहानियों का केन्द्र लगभग हर बार- एक ‘दरार’ को छोड़कर- बनता है शिक्षित मध्यमवर्गीय नारियों से, पर इनमें वर्णित होते हैं हमारे आधुनिक नागरिक जीवन के विभिन्न पक्ष। जैसे वैवाहिक तथा विवाहेतर स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, पारिवारिक परिस्थितियाँ, सामाजिक रूढ़ियाँ, हिन्दू-मुस्लिम समस्या, स्त्रियों की पारस्परिक मैत्री इत्यादि। यहाँ सीधा, सपाट कुछ भी नहीं है। हर स्थिति, हर सम्बन्ध, हर संघर्ष मंे व्याप्त रहते हैं परस्पर विरोधी स्वर। यही विरोधी स्वर रचते हैं हरेक कहानी का एक अलग राग।
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