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Basharat Manzil

Basharat Manzil

by Manzoor Ehtesham

Regular price Rs 649.00
Regular price Rs 695.00 Sale price Rs 649.00
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Binding

Language: Hindi

Number Of Pages: 250

Binding: Paperback

...एक उपन्यास जो लगभग दिल्ली ही के बारे में है - पुरानी यानी सन् 47 से पहले की दिल्ली। मेरी कहानी 15 अगस्त, 1947 तक घिसटती नहीं जाती, उससे पहले ही ख़त्म हो जाती है। हाँ, यक़ीनन जो कुछ भी उसमें होना होता है वह इस तारीख़ से पहले ही हो-हुवा चुकता है। एक व्यक्ति और उसके परिवार की कहानी जो एक ज़माने में हर जगह था। शायरी से लेकर सियासत यानी तुम्हारे शब्दों में हक़ीक़त से लेकर फसाने तक, हर जगह ! लेकिन आज जिसका उल्लेख न तो साहित्य में है, न इतिहास में। संजीदा सोजश् और बशारत मंज़िल की कहानी। बिल्लो और बिब्बो की कहानी। गश्जश्ल की कहानी। इन तीनों बहनों की माँ, अमीना बेगम की कहानी। सोजश् की दूसरी पत्नी, जो पहले तवाइफ़ थी और उसके बेटे की कहानी। सारी कहानियों की जो एक कहानी होती है, वह कहानी। मेरी और तुम्हारी कहानी भी उससे बहुत हटकर या अलग नहीं हो सकती। न है। चावड़ी बाजशर ? - मैंने कहना शुरू किया था - चलो, यहाँ से अन्दाजश्न उलटे हाथ को मुड़कर क़ाज़ी के हौजश् से होते हुए सिरकीवालों से गुजश्रकर लाल कुएँ तक पहुँचो। उसके आगे बड़ियों का कटरा हुआ करता था। वहाँ से आगे चलकर नए-बाँस आता था। वह सीधा रास्ता खारी बावली को निकल गया था। नुक्कड़ से जश्रा इधर ही दायें हाथ को एक गली मुड़ती थी। वह बताशोंवाली गली थी। एक जश्माने में वहाँ बताशे बनते आँखों से देखे जा सकते थे। बाद में वहाँ अचार-चटनी वालों का बड़ा मार्कीट बन गया था। मार्कीट के बीच से एक गली सीधे हाथ को मुड़ती थी। थोड़ी दूर जाकर बायीं तरफ़ एक पतली-सी गली उसमें से कट गई थी। इस गली में दूसरा मकान बशारत मंजिश्ल था: पुरानी तर्जश् की लेकिन नई-जैसी एक छोटी हवेलीनुमा इमारत। एक जश्माने में वह मकान अपने-आप में एक पता हुआ करता था मगर फिर वीरान होता गया। कुछ लोग उसे आसेबजश्दा समझने लगे, दूसरे मनहूस। आज तो यक़ीन के साथ यह भी नहीं कह सकते कि वह अपनी जगह मौजूद है या नहीं !
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