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Bharat Durdasha : Soch Aur Srajan

Bharat Durdasha : Soch Aur Srajan

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भारत दुर्दशा’ संक्रमण काल की रचना है, जब भारतीय समाज का चेहरा विद्रूप और 1857 की असफल राज्यक्रान्ति के दुष्परिणाम स्वरूप देशवासी डरा–सहमा था । इन विषम परिस्थितियों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने नाटकों द्वारा समाज सुधार और देशवत्सलता का बीड़ा उठाया । वस्तुत% भारतेन्दु का व्यक्तित्व त्रिकाल द्रष्टा तथा समाज और राष्ट्रनिर्माण की भूमिका का निर्वाहक है । साहित्य संसार में, हमेशा ही ऐसे साधक जन्म लेते रहे हैं जो अपने क्रांतिदर्शी व्यक्तित्व एवं लोक साधक विचार सरणियों के चलते मात्र एक नाम न होकर स्वयं में एक युग बन वर्तमान के साथ–साथ भविष्य को भी ऊर्जा व ऊष्मा देते हैं । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में 9 सितम्बर, 1850 ई– को एक ऐसे ही युग निर्माता का जन्म अंग्रेजभक्त, इतिहास प्रसिद्ध सेठ अमीचंद की वंश–परंपरा में हुआ । ये वही सेठ अमीचंद थे जिन्होंने 1857 ई– के स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों का तन–मन–धन से साथ दिया था । ऐसे अंग्रेज भक्त राष्ट्रबोध से शून्य संस्कारों के बीच भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का यह ऐतिहासिक वाक्य अपने कुछ खास मायने रखता है कि ‘जिस धन ने मेरे वंशजों को खाया है उस धन को मैं खाऊँगा ।’ भारतेन्दु ने अंग्रेज परस्ती की अपने पिता और पारिवारिक ‘लाइन’ से अलग अपनी राह चुनी और उस राह पर जीवन के अंत तक ईमानदारी से चलते रहकर अटल रहे । यथार्थ की ठोस जमीन पर खड़े होकर उन्होंने देश और समाज की बद से बदतर होती स्थिति का न केवल प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया बल्कि उससे टकराने का मन भी बनाया कम पढ़ें


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