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Bina Deewaron Ke Ghar

Bina Deewaron Ke Ghar

by Mannu Bhandari

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Binding

Number Of Pages: 99

Binding: Hardcover

बिना दीवारों के घर का जो घर है उसकी दीवारें हैं, लेकिन लगभग ‘न-हुईं’ सी ही। एक स्त्री के ‘अपने’ व्यक्तित्व की आँच वे नहीं सँभाल पातीं, और पुरुष, जिसको परम्परा ने घर का रक्षक, घर का स्थपति नियुक्त किया है, वह उन पिघलती दीवारों के सामने पूरी तरह असहाय ! यह समझ पाने में कतई अक्षम कि पत्नी की परिभाषित भूमिका से बाहर खिल और खुल रही इस स्त्री से क्या सम्बन्ध बने ! कैसा व्यवहार किया जाए ! और यह सारा असमंजस, सारी दुविधा और असुरक्षा एक निराधार सन्देह के रूप में फूट पड़ती है। आत्म और परपीड़न का एक अनन्त दुश्चक्र, जिसमें घर की दीवारें अन्ततः भहरा जाती हैं। स्त्री-स्वातंत्रय के संक्रमण काल का यह नाटक खास तौर पर पुरुष को सम्बोधित है और उससे एक सतत सावधानी की माँग करता है कि बदलते हुए परिदृश्य से बौरा कर वह किसी विनाशकारी संभ्रम का शिकार न हो जाए, जैसे कि इस नाटक का ‘अजित’ होता है। स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर-परत पड़ताल करने वाली महत्त्वपूर्ण नाट्य- कृति है: बिना दीवारों के घर।
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