Bolna Hi Hai : Loktantra, Sanskriti Aur Rashtra Ke Bare Mein
Bolna Hi Hai : Loktantra, Sanskriti Aur Rashtra Ke Bare Mein
by Ravish Kumar
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Language: Hindi
Number Of Pages: 215
Binding: Paperback
रवीश कुमार की यह किताब ‘बोलना ही है’ इस बात की पड़ताल करती है कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किस-किस रूप में बाधित हुई है, परस्पर सम्वाद और सार्थक बहस की गुंजाइश कैसे कम हुई है और इससे देश में नफ़रत और असहिष्णुता को कैसे बढ़ावा मिला है। कैसे जनता के चुने हुए प्रतिनिधि, मीडिया और अन्य संस्थान एक मजबूत लोकतंत्र के रूप में हमें विफल कर रहे हैं। इन स्थितियों से उबरने की राह खोजती यह किताब हमारे वर्तमान समय का वह दस्तावेज है जो स्वस्थ लोकतंत्र के हर हिमायती के लिए संग्रहणीय है.¶ ¶ हिंदी में आने से पहले ही यह किताब अंग्रेजी, मराठी और कन्नड़ में प्रकाशित हो चुकी है राजकमल प्रकाशन समुह की अनुमति से यह पुस्तक का अंश प्रकाशित किया गया है.
जब भी कोई मुझे कहता है कि आपको बोलने से डर नहीं लगता, मेरे भीतर डर पसर जाता है। मैं अपने बचपन के उस रवीश के पास चला जाता हूं जो शाम के वक्त बेल के पेड़ के नीचे से गुज़रते वक्त हनुमान चालीसा रटने लगता था। जय बजरंग बली बोलने लगता था। किसी से सुना था कि बेल के पेड़ पर भूत होते हैं। पीछे से पकड़ लेते हैं। रास्ते में जब कोई नहीं होता था तो मैं चप्पल हाथ में लेकर दौड़ने लगता था। यही हाल सिनेमा हॉल में होता था। सिनेमा हॉल की बत्ती बुझते ही घबरा उठता था और मारधाड़ का सीन आने पर अपनी आंखें बंद कर लेता था। आजतक किसी भी फिल्म में बलात्कार का कोई सीन खुली आँखों से नहीं देख सका हूं। मैं इतना डरता हूं। परीक्षा के दिनों में फेल होने का डर मुझे हर दिन मारता था। पढ़ने में साधारण था। साइंस के विषयों पर पकड़ न होने के कारण मार्च और अप्रैल का महीना बहुत उदास कर जाता था। ऐसे ही डर के एक क्षण में मेरे पिताजी ने मुझसे कह दिया--"साल भर धीरे धीरे भी पढ़ो तो परीक्षा के दिनों में पढ़ने की ज़रूरत नहीं रहती। डरने की भी ज़रूरत नहीं होती।" बहुत दिनों तक ये बात याद रही। दिल्ली आकर ग्रेजुएशन की पढ़ाई के दौरान मैंने इस डर को जीत लिया। गर्मी की छुट्टियों में जब सारे मित्र पटना चले जाते थे तब मैं लाइब्रेरी में बैठकर अपने डर पर काम कर रहा होता था। बीए की परीक्षाओं से मुझे दोस्ती हो गई। उससे पहले की यह बात है. बोर्ड परीक्षा के दौरान गणित की परीक्षा के लिए घर से निकल रहा था। उस वक्त इतना रोया कि बाबूजी को साथ जाना पड़ा। दरवाजे पर बाल्टी में पानी भर कर उसमें गुलाब रख दिया गया था। जैसे किसी लड़की की विदाई के वक्त रखा जाता है। मैं घर से निकल ही नहीं रहा था। मुझे नहीं पता, उस दिन बाबूजी क्यों साथ गए। वैसे उन्होंने कभी इस बात से मतलब ही नहीं रखा कि मैं किस क्लास में पढ़ता हूं, किस विषय में कमज़ोर हूं, किसमें अच्छा हूं। उस दिन उनका साथ जाना मुझे याद रहा। सेंट ज़ेवियर स्कूल के बाहर उनका साथ छूट रहा था। जी में आया कि एक बार और लिपट कर रो लूं। रास्ते भर समझाते रहे कि इतना क्यों डरते हो। घबराना नहीं चाहिए। उन्हें नहीं पता था कि डर का कारण वही थे। फेल होने पर जीवन से नहीं, उनके ही गुस्से से डर लगता था।
मेरी मां किसी भी परिस्थिति में नहीं घबराती हैं। समभाव में रहती हैं। अक्सर हंसते हुए नॉयना से कह देती हैं कि पहले ही रोने लगता है। परीक्षा के नाम से डर जाता था। ये वही नॉयना हैं, जिनके कारण मैं जीवन के बाकी हिस्सों में डर से आज़ाद होना सीखने लगा। वो कहानी फिर कभी।
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