बहतरीन अनुवाद।
पुस्तक का दाम ज्यादा रखा गया है।अंग्रेजी संस्करण अमेजन और फ्लिप्कार्ट पर बहुत सस्ता।
अमीर अली के कारनामे हृदय विदारक।मगर पढते हुए लगा कि उसने लाग लपेट ना करके दिल खोल दिया।उस समय के भारत की तस्वीर उकेरी गयी है।सामाजिक हालात बहुत खराब रहे होँगे।अपने सैय्यद होने के दर्प को कहीं नहीं छिपाया।हिन्दुओं की मांग और ढ़ोर जातियों की हीन अवस्था का वर्णन करना और खुद दुर्दांत अपराधी होते हुए इन जातियों को जन्मजात क्रिमिनल कास्ट घोषित करना अतीव दु:ख का विषय।
तत्कालीन जालौन का राजा अवश्य ही मराठा उच्च वर्ण का हिन्दू रहे होँगे। लगता नहीं है कि इतने गिरे हुए होँगे।सच है कि लम्बे समय से निम्न वर्ग के हिन्दुओं का शोषण बुंदेलखंड में होता रहा हो मगर ठग ब्राह्मण भी होते थे जिसके कई उदहारण पुस्तक में दिये हैं और एक ठग का उच्च वर्ण के हिन्दू होने का दर्प और जन्म जनमान्तर के सुकर्मों के फलस्वरुप उच्च वर्ण में पैदा होने का प्रिविलेज बहुत कुछ कह जाता है।अन्ग्रेज कम्पनी बहादुर के सामने तो तत्कालींन राजे महराजे क्या दुर्दांत अपराधी भी घुटनो पर झुके दिखाये गये हैं।अमीर अली के मुंह से अन्ग्रेज लेखक टेलर ने जानबूझ कर कहलवाया प्रतीत होता है।टेलर महोदय क्यों नहीं कुछ दशक बाद (1857) के भारतीयों के स्वतंत्रता संग्राम के दौर के भारत का जिक्र करते ?
अन्धविश्वास तो तत्कालीन सारे भारतीयों में रहा होगा।पढे लिखे लोगों की संख्या ही कितनी थी- स्त्री और शूद्र तो ग्रामीण/ कस्बों में शिक्षा ले ही नहीं सकते थे।झांसी के शासक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे और ऐसा नहीं लगता कि उन्होने कभी शिक्षा प्रसार के लिये कुछ प्रयास किये हों!!
होल्कर, सिंधिया, भोंसले मराठा राजे थे।पेशवा, निज़ाम अन्ग्रेज कम्पनी बहादुर से subsidiary alliance कर के चुप लगा कर बेठ गये, anarchy का बोलबाला था, पुलिस तंत्र बर्बाद हो चुका था, पिन्डारी निर्बाध लूटपाट कर रहे थे।टेलर साहब अमीर अली के मुंह से भारतीयों को रिश्वतखोर, लालची, अकर्मण्य बताने को उतावले दिखाई देते हैं- कभी उन्होने अंग्रेजों में व्याप्त बुराईयों का Bernard Cornwell या अन्य लेखको की तरह जिक्र भी किया हो!