रवीन्द्र कालिया की आत्मकथात्मक पुस्तक 'ग़ालिब छुटी शराब' का नवीनतम संस्करण नयी सज-धज के साथ आपके सामने आ रहा है। यह पुस्तक इक्कीसवीं सदी की प्रथम बेस्ट सेलर किताब रही है। सन् 2000 में इसका पहला संस्करण आया। हिन्दी के विख्यात रचनाकार रवीन्द्र कालिया ने यह संस्मरण विषम परिस्थितियों में लिखना आरम्भ किया था। उनका यकृत बिगड़ चुका था; साक़ी ने जाम उनके हाथ से छीन लिया था, महफ़िलें उठ गयी थीं, यार रुखसत हुए। डॉक्टरों की जाँच, दवाओं की आँच और गिरती सेहत की साँच के सामने यह लेखक हतबुद्धि-सा खड़ा रह गया। कवि नीरज के शब्दों में उसकी हालत ऐसी हो गयी कि 'कारवाँ गुज़र गया/गुबार देखते रहे।' रवीन्द्र कालिया ने यों तो बहुत-सा साहित्य रचा, लेकिन यह पुस्तक ख़ास है, क्योंकि यह पस्ती में से झाँकती मस्ती की मिसाल है। लेखक को इसे लिखते हुए अपने मौज-मस्ती के दिन तो याद आते ही हैं, अपनी नादानियाँ और लन्तरानियाँ भी याद आती हैं। आत्मबोध, आत्मस्वीकृति और आत्मवंचना के तिराहे पर खड़े रवीन्द्र कालिया को यही लगता है कि 'रास्ते बन्द हैं सब/कूचा-ए-कातिल के सिवा।' एक सशक्त लेखक ऐसी दुर्निवारता में ही कलम की ताकत पहचानता है। लेखन ही उसकी नियति और मुक्ति है। पाठकों ने इस पुस्तक को अपार प्यार दिया है। जिसने भी पढ़ी बार-बार पढ़ी। ऐसा भी हुआ असर कि जो नहीं पीते थे, वे पीने की तमन्ना से भर गये और जो पीते थे, उन्होंने एक बार तो तौबा कर ली। इसे हर उम्र के पाठक ने पढ़ा है। अपनी गलतियों का इतना बेधड़क स्वीकार लेखक को हर दिल अज़ीज़ बनाता है। युवा आलोचक राहुल सिंह का कहना है, 'ग़ालिब छुटी शराब' हिन्दी की उन चन्द किताबों में है जिसकी पहली पंक्ति से एक अलहदा किस्म के गद्य का एहसास हो जाये। कुछ ऐसा जिसकी लज्ज़त आप पुरदम महसूस करना चाहें। यह किताब कालिया जी की ज़िन्दादिली से आबाद है जिससे उनकी हँसी आने वाली शताब्दियों में भी सुनाई देती रहेगी। एक सवाल मन में कौंधा कि आख़िरकार इस किताब में वह कौन-सी बात है जो इस कदर बाँधती है। वह है एक निष्कलुष व्यक्तित्व जो खुद को लेकर जितना निर्मम है, दूसरों के प्रति उतना ही हार्दिकता या सदाशयता से भरा है। - ममता कालिया
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