'गीता' शीर्षक यह उपन्यास पहले 'पार्टी कामरेड' नाम से प्रकाशित हुआ था । इसके केंद्र में गीता नामक एक कम्युनिस्ट युवती है जो पार्टी के प्रचार के लिए उसका अखबार बम्बई की सड़कों पर बेचती है और पार्टी के लिए फंड इकट्ठा करती है । पार्टी के प्रति समर्पित निष्ठावान गीता पार्टी के काम के सिलसिले में अनेक लोगों के संपर्क में आती है । इन्ही में से एक पदमलाल भावरिया भी है जो पैसे के बल पर युवतियों को फँसाता है । उसके साथी एक दिन उसे अखबार बेचती गीता को दिखाकर फँसाने की चुनौती देते हैं । गीता और भावरिया का लम्बा संपर्क अंततः भावरिया को ही बदल देता है । अपने अन्य उपन्यासों की तरह इस उपन्यास में भी यशपाल देश की राजनीति और उसके नेताओं के चारित्रिक अंतर्विरोधों को व्यग्यात्मक शैली में उद्घाटित करते हैं । उपन्यास में कम्यून जीवन का बड़ा विश्वसनीय अंकन हुआ है जिसके कारण इस उपन्यास का ऐतिहासिक महत्त्व है । इसके लिए काफी समय तक यशपाल बम्बई में स्वयं कम्यून में रहे थे । अपने ऊपर लगाए गए प्रचार के आरोप का उत्तर देते हुए यशपाल उपन्यास की भूमिका में संकेत करते हैं कि वास्तविकता को दर्पण दिखाना भी प्रचार के अंतर्गत आ सकता है या नहीं, यह विचारणीय है ।
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