दमयन्ती के दिल में एक आग जल रही थी। वह साहस, संघर्ष और कर्मठता का जीवन अपनाकर अपने दुख, निराशा और अपमान का बदला उस व्यक्ति से लेना चाहती थी, जिसने दहेज के लालच में उसे ठुकरादिया था। उस दिन वह खुशी से चहक उठी, जब उसे नियुक्ति-पत्र मिला। उसकी खुशी का एक यह भी कारण था कि उसे गाँव की औरतों की सेवा करने का मौका मिला था। जब पढ़ती थी, तो उसकी यह इच्छा रही थी कि वह अपने देश के लिए, समाज के लिए कुछ करे। आज उसका सपना साकार होने चला था। परन्तु गाँव में जाकर उसे कितना कटु-अनुभव हुआ था! उस गाँव में न कोई स्कूल था और न ही अस्पताल। रूढ़िवादी संस्कारों और अन्धविश्वासों की गिरफ्त में छटपटाते लोग थे, जिन्हें पढ़ाई-लिखाई से नफरत थी। उनका विश्वास था कि पढ़ाई-लिखाई से गरीबी आएगी। भला अपने बच्चों को वे भिखमंगा क्यों बनाएँ? भगवान ने सबको हाथ-पैर दिए हैं। टोकरी बनाकर शहर में बेचो और पेट का गड्ढा भरो। इस अज्ञानता के कारण गाँव के गरीब लोग जहाँधर्म के ठेकेदारों के क्रिया-कलापों से आक्रांत थे, वहीं जोंक की तरह खून चूसने वाले सूदखोरों के जुल्मों से उत्पीड़ित भी। इसके बावजूद दमयन्ती ने हार नहीं मानी। अपने लक्ष्य की राह को प्रशस्त करने की दिशा में जुटी रही - कि अचानक हरिचरन के प्रवेश ने ऐसी उथल-पुथल मचाई कि उसके जीवन की दिशा ही बदल गई। गाँवों के जीवन पर आधारित अमरकान्त का बेहद संजीदा उपन्यास है: ग्रामसेविका! लेखक ने अपने इस उपन्यास में जहाँ गाँवों के लोगों की मूलभूत समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है, वहीं गाँव के विकास के नाम पर बिचौलियों और सरकारी अधिकारियों की लूट-खसोट को बेबाकी से उजागर किया है।
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