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Jali Thee Agnishikha

Jali Thee Agnishikha

by Mahashweta Devi

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Binding

Number Of Pages: 107

Binding: Hardcover

ऐतिहासिक उपन्यास लेखन पर कोई स्पष्ट राय अब तक नहीं बन सकी है। रोमांस और त्रासदी का अंकन कर उपन्यासकार अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है। लेकिन प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी ‘इतिहास-सृजन’ को अतिरिक्त जिश्म्मेदारी से निभाती हैं। ऐसे लेखन के लिए एक ख़ास प्रवणता, कथा की बजाय देश, काल, पात्र और आचार-व्यवहार की प्रामाणिक जानकारी का होना बेहद जश्रूरी है। इसके अलावा मौजूदा समय की पकड़ भी। महाश्वेताजी में ये सभी विशेषताएँ मौजूद हैं। पहले उपन्यास ‘झाँसी की रानी’ के बाद जली थी अग्निशिखा में पुनः रानी लक्ष्मीबाई केन्द्र में है। महाश्वेता जी का लेखन अपने मिजशज और तेवर में नितान्त भिन्न है। बिल्कुल नई सूचनाएँ, नया अनुभव और नई भाषा। लोक मुहावरे और ठेठ देशज शब्दों के इस्तेमाल से उन्हें परहेजश् नहीं है, दरअसल उनका आग्रह सामाजिकता के प्रति अधिक रहता है। प्रस्तुत उपन्यास में अंग्रेजशें और उनके सेनापति ह्यूरोजश् के लिए झाँसी और रानी दोनों पहेली हैं। रानी की ताक़त के सम्मुख अंग्रेजश् सैनिक हताश है। ह्यूरोजश् जानना चाहता है कि झाँसी की रानी आखि़र क्या बला है ? ग्वालियर शहर (जहाँ उनका डेरा है) से पूरब की तरफ़ धू-धू जल रही अग्नि किन लोगों ने जलाई होगी ? सारे द्वन्द्व उसके अन्दर चलते रहते हैं। जब उसे पता चलता है कि रानी अदम्य इच्छाशक्ति, साहस और संघर्ष से लैस शान्त, सभ्य और बुद्धिमान महिला है तो वह अवाक् रह जाता है। उसकी यह धारणा ख़त्म हो जाती है कि भारतीय महिलाएँ अनपढ़, गवार और फूहड़ होती हैं। रानी के संघर्ष के बहाने उपन्यास उस समय की जीवन स्थितियों, विडम्बनाओं, विद्रूपताओं तथा अंग्रेजशें की क्रूरताओं को भी सामने लाता है। इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए एक जश्रूरी किताब।
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