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Kahi Na Jay Ka Kahie

Kahi Na Jay Ka Kahie

by Bhagwaticharan Verma

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Regular price Rs 116.00
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Binding

Language: Hindi

Number Of Pages: 158

Binding: Hardcover

“मैं यह अच्छी तरह जनता हूँ कि मरने के बाद मेरा नाम ही रह जाएगा ! यह नाम भी कब तक रहता है, कुछ कहा नहीं जा सकता ! और नाम का रहना या न रहना मेरे लिए महत्त्व का नहीं है ! लेकिन अपना नाम सैकड़ों-हजारों वर्ष चले, इसकी अभिलाषा अपनी इस लापरवाही वाली अकड़ के बावजूद, मन के किसी कोने में जब तब उचक-उचक पड़ती है ! “तो मैं भगवतीचरण वर्मा, पुत्र श्री देवीचरण, जाति कायस्थ, रहनेवाला फ़िलहाल लखनऊ का, अपनी आत्मकथा कह रहा हूँ ! कुछ हिचकिचाहट होती है, कुछ हंसी आती है-बेर-बेर एक पंक्ति गुनगुना लेता हूँ-‘कहि न जाय का कहिए !’ तो यह आत्मकथा मैं दूसरों पर अपने को आरोपित करने के लिए नहीं कह रहा हूँ ! मैं तो यह दूसरों का मनोरंजन करने के लिए कह रहा हूँ !“ लेकिन दुर्भाग्य से यह आत्मकथा पूरी न हो सकी ! अगर पूरी हो गई होती तो निश्चय ही यह हिंदी में एक महत्त्पूर्ण आत्मकथा होती ! ‘चित्रलेखा’, ‘भूले-बिसरे चित्र’, ‘रेखा’, ‘सबहिं नचावत राम गोसाई’ जैसे उपन्यासों के रचनाकार भगवती बाबू ही यह कह सकते थे कि अपनी आत्मकथा वे दूसरों के मनोरंजन के लिए कह रहे हैं ! इस अधूरी आत्मकथा को किसी हद तक पूरा करने के लिए उनका तीन किश्तों में लिखा एक आत्मकथ्य ‘ददुआ हम पे बिपदा तीन’ भी इस पुस्तक में दिया जा रहा है ! इसमें पाठकों को अपने प्रिय लेखक को समझने के लिए और व्यापक आधार मिलेगा !
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