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Khwab Ke Do Din

Khwab Ke Do Din

by Yashwant Vyas

Regular price Rs 269.00
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Binding

Language: Hindi

Number Of Pages: 284

Binding: Paperback

मैं बुरी तरह सपने देखता रहा हूँ। चूँकि सपने देखना-न- देखना अपने बस में नहीं होता, मैंने भी इन्हें देखा। आप सबकी तरह मैंने भी कभी नहीं चाहा कि स्वप्न फ्रायड या युंग जैसों की सैद्धांतिकता से आक्रांत होकर आएँ या प्रसव पीड़ा की नीम बेहोशी में अखिल विश्व के पापनिवारक-ईश्वर के नए अवतार की सुखद आकाशवाणी के प्ले-बैक केसाथ। मीडिया के ईथर में तैरते हुए १९९२ की नीम बेहोशी में चिंताघर नामक नामक लंबा स्वप्न देखा गया था और चौदह बरस बाद अपनेसिरहाने रखी २००६ की डायरी में जो सफे मिले, उनका नाम था-कॉमरेड गोडसे। ऐसे जैसे एक बनवास से दूसरे बनवास में जाते हुए ख़्वाब के दो दिन। कुछ लोग कहते हैं, तब अखबारों के एडीटर की जगह मालिक के नाम ही छपते थे, चौदह साल बाद कहने लगे इश्तहारों और सूचनाओं के बंडलों पर जो एडीटर का नाम छपता है, वह मालिक के हुक्म बिना इंच भर न इधर हो, न उधर। कुछ लोग कहते हैं, बड़ा ईमान था जो हाथ से लिखते थे, चौदह साल बाद कहने लगे छोटा कंप्यूटर है लाखों-लाख पढ़ते हैं। तब एक लड़का था जो चिंताघर में घूमता, मु_िïयों में पसीने को तेजाब बनाता, दियासलाई उछालना चाहता था। चौदह साल बाद दो हो गए, जो जोरदार मालिक और चमकदार एडीटर के चपरासी और साथी की शक्ल में आत्माओं के छुरे उठाए फिरते हैं। पहले दिन से चौदह बरस बाद के बनवासी दिन टकरा-टकरा कर चिंगारियाँ फेंकते हैं। इन चिंगारियों में हुई सुबह ख़्वाबों को खोल-खोल दे रही है। आज इस सुबह सपनों की प्रकृति के अनुरूप भयंकर रूप से एक-दूसरे में गुम काल, स्थान और पात्रों के साथ मैं अपने सपनों की यथासंभव जमावट का एक चालू चि_ आपको पेश करता हूँ।
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