रचना और पाठक के बीच समीक्षक या आलोचक नाम की तीसरी श्रेणी जरूरी है या नहीं, यह शंका पुराणी है ! सामाजिक या राजनितिक जरूरत के रूप में यह श्रेणी अपनी उपादेयता बार-बार प्रमाणित करती रही है ! लेकिन साहित्यिक जरूरत के रूप में ? यह ख़ास जरूरत दरअसल न हमेशा पेश आती है और न पूरी होती है ! यह जरूरत तो बनानी पड़ती है ! आलोचना या समीक्षा की विरली ही कोशिशें ऐसी होती हैं जो पाठक को रचना के और-और करीब ले जाती हैं, और-और उसे उसके रस में पगाती हैं ! ये कोशिशें रचना के सामानांतर खुद में एक रचना होती हैं ! मूल के साथ एक ऐसा रचनात्मक युग्म उनका बंटा है कि जब भी याद आती हैं, दोनों साथ ही याद आती हैं ! इस पुस्तक में संकलित समीक्षाएँ ऐसी ही हैं ! बडबोलेपन के इस जमाने में विश्वनाथ त्रिपाठी ने एक अपवाद की तरह हमेशा 'अंडरस्टेटमेंट' का लहजा अपनाया है ! उनके लिखे पर ज्यादा कहना भी अनुचित के सिवाय और कुछ नहीं है ! इतना कहना लिकिन जरूरी लगता है कि कुछ स्वातंत्रयोत्तर हिंदी कहानियों पर लिखी ये समीक्षाएँ पढने के बाद वे कहानियां फिर-फिर पढने को जी करता है ! हमारे लिए वे वही नहीं रह जातीं, जो पहले थीं !
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