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Main Bonsai Apane Samay Ka : Ek Katha Aatambhanjan Ki
Main Bonsai Apane Samay Ka : Ek Katha Aatambhanjan Ki
by Ramsharan Joshi
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Language: Hindi
Number Of Pages: 455
Binding: Paperback
रामशरण जोशी व्यक्ति नहीं, संस्था हैं। बहुआयामी शख्स हैं; पेपर हॉकर से सफल पत्रकार; श्रमिक यूनियनकर्मी से पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्रशासक; यायावर विद्यार्थी से प्रोफेसर; बॉलीवुड के चक्कर; नाटकों में अभिनय और बाल मज़दूर से राष्ट्रीय बाल भवन, दिल्ली के अध्यक्ष पद तक का सफर स्वयं में चुनौतीपूर्ण उपलब्धि है। अलवर में जन्मे, दौसा जि़ले (राजस्थान) के मामूली गाँव बसवा की टाटपट्टी से उठकर देश-विदेश की अहम घटनाओं का कवरेज, एशिया, अफ्रीका, यूरोप, अमेरिका आदि देशों की यात्राएँ उनके व्यक्तित्व को बहुरंगी अनुभवों से समृद्ध करती हैं। कालाहांडी, बस्तर, सरगूजा, कोटड़ा जैसे वंचन-विपन्नता के सागर से लेकर दौलत के रोम-पेरिस-न्यूयॉर्क टापुओं को खँगाला है जोशी जी ने। राजधानी दिल्ली की सडक़ों को नापते हुए राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों जैसे अतिविशिष्टजनों के साथ देश-विदेश को नापा है। पत्रकार जोशी ने खुद को संसद-विधानसभाओं की प्रेस दीर्घाओं तक ही सीमित नहीं रखा, वरन् मैदान में उतरकर जोखिमों से मुठभेड़ भी की; 1971 के भारत-पाक युद्ध का कवरेज; श्रीलंका, अफगानिस्तान, पाकिस्तान जैसे देशों के संकटों पर घटनास्थल से लेखन; साम्प्रदायिक व जातीय हिंसाग्रस्त मानवता की त्रासदियों के मार्मिक चित्रण में जोशी जी के सरोकारों की अनुगूँज सुनाई देती है। यकीनन यह यात्रा सपाट नहीं रही है। इसमें अनेक उतार-चढ़ाव आए हैं। उड़ानों पर ही सवार नहीं रहा है लेखक। वह गिरा है, फिसला भी है, आत्मग्लानि का शिकार हुआ है, स्वयं से विश्वासघात किया है उसने। फिर भी वह राख के ढेर से उठा है। वर्ष 2004 में प्रकाशित मासिक ‘हंस’ में उनके दो आलेख—मेरे विश्वसघात व मेरी आत्मस्वीकृतियाँ—किसी मील के पत्थर से कम नहीं रहे हैं। बेहद चर्चित-विवादास्पद। हिन्दी जगत में भूचाल आ गया था। पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले। इस आत्मकथा में रामशरण जोशी ने खुद के परखचे उड़ाने की फिर से हिमाकत की है। नहीं बख्शा खुद को, शुरू से अन्त तक। तभी सम्पादक-कथाकार राजेन्द्र यादव जी ने एक बार लेखक के बारे में लिखा था—‘‘इधर उनकी संवेदनाएँ रचनात्मक अभिव्यक्तियों के लिए कसमसाने लगी हैं और वे अपने अनुभवों को कथा-कहानी या आत्म-स्वीकृतियों का रूप देने की कोशिश कर रहे हैं। पता नहीं क्यों, मुझे लगता है कि लम्बी बीहड़ भौतिक और बौद्धिक यात्राओं के बाद वे उस मोड़ पर आ गए हैं जिसे नरेश मेहता ने ‘अश्व की वल्गा लो अब थाम, दिख रहा मानसरोवर’ कहकर पहचाना था। आखिर रामशरण जोशी ने भी अपनी शुरुआत ‘आदमी, बैल और सपने’ जैसी कथा-पत्रकारिता से ही तो की’’ सतह से सवाल उठेगा ही, आखिर क्यों पढ़ें इस बोनसाई को? सच! ड्राइंग रूम की शोभा ही तो है यह जापानी फूल। कहाँ महकता-दमकता है? इसका आकार न बढ़ता है, न ही घटता है। बस! यथावत् रहता है बरसों तक अपने ही वृत्त में यानी स्टेटस को! कितना आत्म-सन्तप्त रहता होगा अपनी इस स्थिति पर, यह कौन जानता है? यही नियति है बोनसाई की उर्फ उस मानुष की जो अपने वर्ग की शोभा तो होता है लेकिन अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पाता। वर्गीय मायाजाल-मुग्धता में जीता रहता है, और उन लोगों का दुर्ग सुरक्षित-मज़बूत रहता है। व्यवस्थानुमा ड्राइंग रूम में निहत्था सजा बोनसाई टुकुर-टुकुर देखता रहता है। यह आत्मकथा रामशरण जोशी जी की ज़रूर है लेकिन इसमें समय-समाज और लोग मौजूद हैं। दूसरे शब्दों में, खुद के बहाने, खुद को चीरते हुए व्यवस्था को परत-दर-परत सामने रखा है। सो, कथा हम सब की है।
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