‘‘2007 में पाकिस्तान में एक अनिश्चित भविष्य की तरफ़ लौटते वक्त न सिर्फ़ अपने और अपने देश के बल्कि सारी दुनिया के लिए मौजूद खतरों से मैं अच्छी तरह वाकिफ़ हूँ। हो सकता है कि पाकिस्तान पहुँचते ही मैं गिरफ़्तार कर ली जाऊँ। हो सकता है कि जब मैं हवाई अड्डे पर उतरूँ तो गोलियों की शिकार हो जाऊँ। पहले भी कई बार अल-क़ायदा मुझे मारने की कोशिश कर चुका है। हम यह क्यों सोचें कि वह ऐसा नहीं करेगा? क्योंकि मैं अपने वतन में लोकतांत्रिक चुनावों के लिए लड़ने को लौट रही हूँ और अल-क़ायदा को लोकतांत्रिक चुनावों से नफ़रत है। लेकिन मैं तो वही करूँगी जो मुझे करना है और मैं पाकिस्तान की जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं में साथ देने का अपना वादा पूरा करने का पक्का इरादा रखती हूँ।’’ अप्रैल 2007 में लिखे हुए ये शब्द आखिर 27 दिसम्बर, 2007 को सच्चाई में बदल गए, जब बेनज़ीर भुट्टों की रावलपिंडी में निर्मम हत्या कर दी गई। ‘‘यह एक बहुत बहादुर औरत की आपबीती है जिसने अनेक चुनौतियाँ स्वीकार कीं, जिसके परिवार के अनेक लोग शहीद हुए, जिसने पाकिस्तान की आज़ादी की मशाल जलाए रखी, बावजूद तानाशाही के विरोध के।’’-संडे टाइम्स ‘‘यह आपबीती है एक सख्तजान और योद्धा औरत की जिसने अपने जीवन का पूरा घटनाचक्र साफगोई से और बहुत ही दिलचस्प ढंग से वर्णन किया है।’’-इंडिपेंडेंट। ‘‘निडरता, वीरता और जीवन की नाटकीय घटनाओं की मर्मस्पर्शी आत्मकथा।’’-ईवनिंग स्टैण्डर्ड।
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