साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत मैत्रेयी देवी के आद्यंत रसपूर्ण इस उपन्यास में प्रेम के अमर तत्त्व ने समय की अबाध गति को न केवल रोक दिया है, वरन् उसे अतीत की ओर मोड़ दिया हैµबयालीस वर्ष पूर्व नवयौवन के निश्छल, निष्पाप प्रेम के सहज और अबोध दिनों की ओर । आज की पकी उम्र की श्वेत–केशिनी, झुर्रियों–भरे चेहरे और ढीले बदन की अमृताय बेटों–पोतोंवाली, सम्पन्न परिवार की सम्भ्रांत अमृता एक ऐसे असमंजस का शिकार हो गई है, जिसे न तो वह छोड़ ही पा रही है और न अपने हृदय से भींच–बाँधकर रख सकती है । बयालीस वर्ष पहले वह सब कुछ, जो एक विदेशी छात्र को लेकर उसके साथ हुआ था, वह प्रेम ही था न ! प्रेम नहीं था तो इस तरह, इस उम्र में, आज की परिस्थितियों में उसकी याद ने उसे इतना क्यों झकझोर दिया है ? आधी सदी पहले सात समंदर पार से आए उस अपरिचित से मिलने को आज वह एकाएक कातर क्यों हो उठी है और अपने अत्यंत सहनशील पति से उसे एक बार देख आने की अनुमति क्यों चाह रही है ? प्रेम जन्म–रहित है, शाश्वत व पुरातन है शरीर का नाश होने पर भी वह नहीं मरता । न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।
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