नंगातलाई का गाँव विश्वनाथ त्रिपाठी विश्वनाथ त्रिपाठी की अद्भुत लेखन-शैली प्रकट हुई है इस स्मृति आख्यान ‘नंगातलाई का गाँव’ में। जहाँ विश्वनाथ त्रिपाठी ‘बिसनाथ और नंगातलाई दो रूपों में उपस्थित हैं। ऐसी विलक्षण जुगलबंदी कि पाठक चमत्कृत हुए बिना रह न सके। नंगातलाई का गाँव ‘बिस्कोहर’ के बहाने भारतीय ग्रामीण जीवन-सभ्यता की मनोरम झाँकी के रूप में इस पुस्तक में उपस्थित है। आत्म-व्यंग्य के कठिन शिल्प में, दुख की चट्खारे लेकर व्यक्त करने का करिश्मा ‘नंगातलाई का गाँव’ को एक विशिष्ट श्रेणी में लाकर खड़ा कर देता है और अनायाश ही निराला, हरिशंकर परसाई और नागार्जुन की याद दिलाता है। यथार्थ के पुनर्सृजन में लेखक जिन अविस्मरणीय पात्रों का सहरा लेता है उनसे समस्त मानवीय संवेदनाएँ स्वतः अभिव्यक्त होती हैं। इस प्रकार ‘नंगातलाई का गाँव’ जय-पराजय, हास-परिहास, प्रेम-घृणा, मान-अभिमान, क्रोध-प्रसन्नता, विनम्रता-अहंकार की अनुभूतियों से गुज़रते हुए आत्मकथा के अभिजात्य से मुक्त होते हुए - महाकाव्यात्मक गाथा का रूप ले लेता है। यह विलक्षण रूप-परिवर्तन ही इस स्मृति-आख्यान को कालजयी कृति के रूप में स्थापना देता है। यह कृति, चूँकि लेखक के दो रूपों (जीवनीकार और आत्मकथा लेखक) से बने प्रयोगधर्मी शिल्प में अपना कथा-विन्यास पाती है, अतः इसमें अतीत से लेकर भूमंडलीकरण तक के प्रभावों को पाठक महसूसता है जिससे अद्भुत, अनूठे शिल्प का भी उदाहरण बन जाता है - ‘नंगातलाई का गाँव’।
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