मनोहर श्याम जोशी ने अगर उपन्यास न भी लिखे होते तो भी व्यंग्यकार के रूप में हिंदी में उनका बहुत आला मुकाम रहा होता । लेकिन अस्सी के दशक में अपने उपन्यासों के माध्यम से उन्होंने व्यंग्य विधा का पुनराविष्कार किया । वे एक बौद्धिक व्यंग्यकार. थे जिनके व्यंग्य में वह फूहड़ता और छिछलापन नहीं मिलता जो समकालीन व्यंग्य की विशेषता मानी जाती है । इस तरह देखें तो वे व्यंग्य की एक समृद्ध परम्परा के सशक्त हस्ताक्षर की तरह लगते हैं तो कई बार अपने फन में अकेले भी जिनकी नकल करना आसान नहीं है । उनकी रचनाओं के इस प्रतिनिधि संकलन में उनकी यह खासियत उभरकर आती है । इसमें उनके उपन्यासों के अंश, कुछ संस्मरणों के हिस्से हैं और उनके स्वतंत्र व्यंग्य लेख भी शामिल हैं जो उनके व्यंग्य की रेंज को दिखाते हैं । एक इंटरव्यू में जोशी जी ने कहा था कि हमारा समाज विदूप के मामले में बहुत आगे है, ऐसे में व्यंग्य विधा उससे बहुत पीछे दिखाई देती है । बीबीसी से अपनी आखिरी बातचीत में उन्होंने यह भी कहा था कि आज हम एक बेशर्म समय में रहते हैं । व्यंग्य हमारे भीतर की शर्म को जाग्रत करने का सशक्त माध्यम रहा है । इस संकलन में संकलित सामग्री से व्यंग्य की यह शक्ति ही सामने नहीं आती, बतौर व्यंग्यकार जोशी जी की ताकत का भी पता चलता है ।
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