पालीसिंह बहुत सालों बाद अपने गाँव लौटा है। लारी से उतरकर पाँच कोस चलकर गाँव पहुँचता है। जहाँ बचपन की उसकी सारी यादें-रास्ते, पेड़ों, पगडण्डियों हर कोने-कोने में छाई हुई है। बचपन की यादें एक छोटे बच्चे की उत्सुकता भरी निगाहों की तरह उसके अन्दर उन लोगों के बारे में जानने की इच्छा पैदा कर देता है जिन्हें वो सालों पहले छोड़ महानगर कलकत्ता भाग गया था। जैसे-जैसे वह गाँव की तरफ बढ़ता वैसे ही हवाओं की मस्ती उसे पुरानी यादों से मदमस्त करती जाती और फिर उसे याद आती है अपनी सरनों की जिसे बचपन में वह बहुत तंग किया करता। बलवन्त सिंह का यह उपन्यास अतीत की ललक को बखूबी उभारता हुआ अहिस्ते से इस बात का भी अहसास कराता चलता है कि वर्तमान अकसर वैसा नहीं होता जैसा हम सोचते हैं। समय अकसर अपने दाँवपेंच बदलता रहता है और इसी दाँवपेंच के बीच कैसा है पालीसिंह, जो अपने अतीत को पूरी तरह छोड़ नहीं पाता। पालीसिंह सरनों से प्यार करता है और उसे पाने के लिए वह अपने आप को हर पल बदलने की कोशिश भी करता है। पालीसिंह ने पहली बार अपने जीवन में प्रेम को महसूस किया है पर इंसानी फितरत और नियत को कभी-कभी खुद इंसान भी समझ नहीं पाता है। लेकिन बलवंत सिंह ने अपने सरल और सीधे अंदाज में इस जटिलता को पाठकों के सामने पेश किया है।
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