रमुआ-कलुआ-बुधिया और राष्ट्रवाद पुस्तक एक गम्भीर विषय है। रमुआ-कलुआ-बुधिया दरअसल सिर्फ नाम न होकर आम-जनमानस का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्हें कभी जाति के नाम पर कभी धर्म के नाम पर तो कभी राष्ट्रवाद के नाम पर छला जाता है। भारत के परिप्रेक्ष्य में आज जब भूख भुखमरी वेरोजगारी एवं र्आिथक विफलता जैसे गम्भीर मुख्य मुद्दों को छद्म राष्ट्रवाद के सहारे कुचल देने का प्रायोजित षड्यंत्र चल रहा हो तो यह पुस्तक राष्ट्रवाद के विमर्श में आम जनमानस की आंकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती दिखाई पड़ती है। देश में अफीमचियों से भी अधिक खतरनाक छद्म राष्ट्रवादी आज गली-नुक्कड़ और चौराहों पर आसानी से देखे जा सकते हैं, या टेलीविजन चैनलों और अखबार के पन्नों पर तो इनकी भरमार है। राष्ट्रवाद का आधार तर्क और वैचारिकता ही है। मनुष्य और पशु में मात्र ‘विचारों’ का अन्तर होता है। आज के परिवेश में जहाँ एक तरफ ‘विचारों’ की हत्या की जा रही हो तो ऐसी पुस्तक पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। राष्ट्रवाद की परिकल्पना जाति, धर्म, म़जहब, सम्प्रदाय, लिंग भाषा संस्कृति, क्षेत्र, उपनिवेश, राजनीति जैसे संकीर्ण दायरों को तोड़ते हुए सार्वभौमि राष्ट्रवाद के सन्निकट दिखाई पड़ती है जिसके केन्द्र में निश्चित तौर पर रमुआ-कलुआ-बुधिया अर्थात् आम-जनमानस ही हैं। सामाजिक विमर्श में रुचि रखने वाले अध्येताओं, छात्रों एवं विद्वानों के लिए यह पुस्तक उपयोगी हो सकेगी। सुबचन राम प्रधान आयकर आयुक्त भारत सरकार
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