Sabz Bastiyon Ke Ghazaal
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उर्दू का बुनियादी मिज़ाज नस्री है। दरबारों, ख़ानक़ाहों और बाज़ारों में परवान चढ़ने वाली ये ज़बान तमाम सरवत-मंदी के बावजूद देही और क़स्बाती ज़िंदगी की बूद-ओ-बाश, रंग-ओ-रौग़न, रिश्तों, रवय्यों, रस्मों, रिवाजों, समाजों और मंज़रों के तौर पर अफ़सानों में तो नज़र आती है मगर शायरी और बिल-ख़ुसूस ग़ज़ल इस से मुकम्मल ना-आशना रही है। नातिक़ की ग़ज़ल अपने क़स्बे की दीवारों और खेतों की सब्ज़ मिट्टी से जुड़ी है। उसकी ज़बान का ख़मीर अपनी धरती की ख़ुशबुओं से उठा है। उसका एक-एक मिसरा उसके अटूट संबंध की गवाही देता है। ये हुनर-आफ़रीन शे'री तिलिस्म किसी काविश का नतीजा नहीं बल्कि वो इल्हामी और विज्दानी तौफ़ीक़ की जज़ा है जिसने नातिक़ को अपनी शादाब व ख़ुश-रंग पानियों वाली धरती से बांधे रखा है। इसकी बरसातें, इसकी सुबहें, शामें, इसके पंखी-पखेरू, इसकी झाड़ियाँ, फल-फूल, हरियाली, इसके खेत-खलियान नातिक़ के वजूद का हिस्सा हैं। इसके सब्ज़ देसों से जनम-जनम के रिश्तों में बंधे हुए,गुंधे हुए पंजाब का देहात, शहर और क़स्बा अपनी तमाम और बुलंद-तर तख़्लीक़ी नह्ज के साथ उर्दू ग़ज़ल में पहली बार मुतलक़ अलैहिदा जमालियात के साथ नातिक़ की शायरी में ज़ाहिर हुआ है।
- इफ़्तिख़ार आरिफ़
- इफ़्तिख़ार आरिफ़