संत न बाँधे गाँठड़ी उपन्यास जीवन और समाज से अभिन्न र्धािमक आस्था-विश्वास, श्रद्धा-भक्ति तथा आध्यात्मिक चेतन के विकास के नाम पर हामरे समक्ष निरन्तर गहराते संकट से न सिर्पâ अवगत कराता है बल्कि अन्धश्रद्धा के खिलाफ हमें जागरूक और सतर्वâ बने रहने की प्रबल प्रेरणा भी देता है। यह उपन्यास वैसे बाबाओं, स्वामियों एवं गुरुओं को ही कटघरे में नहीं लाता बल्कि इसके लिए जनसमाज की अन्धश्रद्धा को भी जिम्मेवार मानता है। अपने ही जैसे किसी इंसान को गुरु और संत के तहत ईश्वर का प्रतिरूप समझ उनकी प्रति अपना तन-मन और धन सर्मिपत कर देना अन्धश्रद्धा नहीं तो और क्या है। उपन्यास की व्यापकता और महत्त्व का परिचायक इसका ऐसा कथ्य और तथ्य है जिसके तहत र्धािमक आध्यात्मिक क्षेत्र के किसी भी पक्ष को ऩजरअन्दाज नहीं किया गया है बल्कि गहराई, बेबाकी और सूक्ष्मता के साथ पूरे परिदृश्य का ऐसा सम्यक और सटीक विश्लेषण हुआ है जिसके तहत दूध का दूध और पानी का पानी की तरह र्धािमक आध्यत्मिक जगत का सत्य और तथ्य, कपट और पाखण्ड तथा योग और भोग सबकुछ स्पष्ट होता चला गया है।
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