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Stree : Deh Ki Rajniti Se Desh Ki Rajniti Tak
Stree : Deh Ki Rajniti Se Desh Ki Rajniti Tak
by Mrinal Pande
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Number Of Pages: 143
Binding: Hardcover
हमारे उपनिषदों–पुराणों के समय से स्त्रियों को लेकर जिन नियमों और मर्यादाओं की रचना हुई, उनकी स्वाधीनता और आत्म–निर्भरता के ख़िलाफ़ निहित स्वार्थों द्वारा जो महीन किस्म का सांस्कृतिक षड्यंत्र रचा गया और भारतीय संविधान के लागू होने के बाद भी व्यावहारिक जीवन में स्त्रियों को जिन जटिल अन्तर्विरोधों से जूझना पड़ रहा है–पुस्तक में प्रस्तुत लेखों में एक स्त्री के नज़रिए से इस सबकी समसामयिक सन्दर्भों में पड़ताल की गई है । एक नागरिक और एक कामगार के रूप में स्त्रियाँ पाती हैं–कि स्त्रियों को कमजोर और पराधीन बनाने की कोशिशें पहले उनके ही घर–आँगनों से शुरू होती हैं । और दहलीज़ लाँघने के बाद कार्यक्षेत्र में वही कोशिशें उनके आगे ताकतवर और सामूहिक पुरुष–एकाधिकार की शक्ल धारण करती चली जाती हैं । विडम्बना यह कि एक ओर तो स्त्री में ‘पराधीन’ और ‘सहनशील’ बनने की महत्ता का बीज बचपन से रोपा जाता है और दूसरी ओर उसकी पराधीनता और सहनशीलता की मार्फत उसकी शक्ति का पूरा दोहन और नियोजन खुद उसी के और स्त्री–जाति के विरोध में किया जाता है । नतीजतन एक स्त्री हर क्षेत्र में दोयम दर्जे में बैठने को बाध्य की जाती है कि तुम्हारी नियति यही है ।...यह भेदभाव सिर्फ निम्नवर्गीय स्त्रियों के साथ ही नहीं बरता जाता, इसकी चपेट में वे स्त्रियाँ भी हैं जो सरकारी–ग़ैर–सरकारी विभागों में ऊँचे–ऊँचे पदों पर कार्यरत हैं ।...दिहाड़ी पर काम करनेवाली तमाम कामगार स्त्रियों को आज भी पुरुषों के मुकाबले कम मज़दूरी मिलती है जबकि कार्य के समय व स्वभाव में कोई फर्क नहीं होता । जैविक, सांस्कृतिक और आर्थिक सन्दर्भों में स्त्री की शक्ति और शक्तिहीनता का विवेचन करनेवाली यह पुस्तक स्त्री–शोषण की करुण कथा नहीं, बल्कि उसके कारणों की जड़ में जाकर किया गया भारतीय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का ऐसा सटीक विश्लेषण है जो पाठकों को स्त्री के साथ–साथ हरिजनों, भूमिहीनों, दलितों जैसे समाज के हर क्षेत्र में छाए शक्ति–असन्तुलनों के शिकार वर्गों को समझने की नई दृष्टि देगा ।
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