आत्मकथा के सम्बन्ध में नगर जी का मत था कि ‘उसे कोरी अहम्-कथा बनाकर लिखने से बेहतर है न लिखना !’ उपन्यास-लेखन की भांति अपने मन में कोई निश्चित रूपरेखा अथवा योजना बनाकर अपनी आत्मकथा नागर जी ने नहीं लिखी ! शायद इसका कारण उनके मन की पारदर्शिता ही थी ! नागर जी के कथा साहित्य एवं उपन्यास ही नहीं वरन किसी भी विधा पर दृष्टिपात करें तो उनके गद्यशिल्प की छटा देखते ही बनती है ! जहाँ एक और वे अपने पाठक को अपने शब्दों के जादू से बांधते हैं वहीँ उनकी त्रिकालदर्शी दृष्टि के साक्षात्कार भी होते हैं! वे एक साथ भूत, वर्तमान एवं भविष्यतकाल के चित्र ख़ूबसूरती के साथ उकेरते हैं ! उनके संस्मरण भी उनकी इस विशिष्टता के कारण अनुपम हैं ! नागर जी भी एक और जितना गाँधीवादी विचारधारा से प्रभावित थे वहीँ दूसरी और उनका गहरा विश्वास मार्क्सवाद में भी था और इस प्रकार वे भी समाजवाद के उपासक थे यदपि वे आजीवन किसी भी राजनैतिक दल के सदस्य नहीं बानवे न ही वे किसी भी राजनैतिक दल से प्रभावित साहित्यिक अथवा कला संगठन के ही विधिवत सदस्य बने ! इसके बावजूद प्रगतिशील लेखक संघ (प.डब्ल्यू.ए.) से उनका भावनात्मक लगाव 1963 में सघ की स्थापना से ही रहा ! इसी प्रकार उनका सम्बन्ध इंडियन पोपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा भारतीय जननाट्य संघ) से उसकी 1943 में हुई स्थापना से ही रहा और इप्टा तथा पी.डब्ल्यू.ए. की गतिविधियों में उनकी सक्रीय भागीदारी सदैव रही ! नागर जी की सोच सदैव सकारात्मक रही; देश की साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को राजनीती की चक्की में पिसते हुए देखकर वे क्षुब्ध भी हो उठते थे किन्तु; उन्हें विश्वास था कि देश और समाज की स्थितियां बदलेंगी ! कदाचित इस कारण ही वे साहित्यिक-सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण के पक्षधर थे ! 1981 में लोक संस्कृति अध्येता श्रीकृष्णदास के सबंध में लिखे अपने एक संमरण में नागर जी लिखते हैं, ... ‘आज कोई किसिस से प्रेरणा नहीं लेता लेकिन सदा तो यह जध्माना नहीं रहेगा ! काम-काज भरा सुनहरा दिन भी एक दिन हमारी भारतीय महाजाति में अवश्य लौटेगा ! उस समय इन नींव के पत्थरों का इतिहास जानकारी देने के लिए रह जाये तो हमारी आगे आनेवाली पीढ़ियाँ शायद हमारा उपकार मानेंगी !’
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