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Viklang Shraddha Ka Daur

Viklang Shraddha Ka Daur

by Harishankar Parsai

Regular price Rs 179.10
Regular price Rs 199.00 Sale price Rs 179.10
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Binding

Language: Hindi

Number Of Pages: 148

Binding: Paperback

हरिशंकर परसाई ने अपनी एक पुस्तक के लेखकीय वक्तव्य में कहा था – ‘व्यंग्य’ अब ‘शूद्र’ से ‘क्षत्रिय’ मान लिया गया है । विचारणीय है कि वह शूद्र से क्षत्रिय हुआ है, ब्राहमण नहीं, क्योंकि ब्राहमण ‘कीर्तन’ करता है । निस्संदेह व्यंग्य कीर्तन करना नहीं जानता, पर कीर्तन को और कीर्तन करनेवालों को खूब पहचानता है । कैसे-कैसे अवसर, कैसे-कैसे वाद्य और कैसी-कैसी तानें-जरा-सा ध्यान देंगे तो अचीन्हा नहीं रहेगा विकलांग श्रद्धा का (यह) दौर । विकलांग श्रद्धा का दौर के व्यंग्य अपनी कथात्मक सहजता और पैनेपन में अविस्मणीय हैं, ऐसे कि एक बार पढ़कर इनका मौखिक पाठ किया जा सके । आए दिन आसपास घट रही सामान्य-सी घटनाओं से असामान्य समय-सन्दर्भों और व्यापक मानव-मूल्यों की उदभावना न सिर्फ रचनाकार को मूल्यवान बनाती है बल्कि व्यंग्य-विधा को भी नई ऊँचाइया सौंपती है । इस दृष्टि से प्रस्तुत कृति का महत्त्व और भी ज्यादा है । श्रद्धा ग्रहण करने की भी एक विधि होती है। मुझसे सहज ढंग से अभी श्रद्धा ग्रहण नहीं होती। अटपटा जाता हूँ। अभी 'पार्ट टाइम' श्रधेय ही हूँ। कल दो आदमी आये। वे बात करके जब उठे तब एक ने मेरे चरण छूने को हाथ बढाया। हम दोनों ही नौसिखुए। उसे चरण चूने का अभ्यास नहीं था, मुझे छुआने का। जैसा भी बना उसने चरण छु लिए। पर दूसरा आदमी दुविधा में था। वह तय नहीं कर प् रहा था कि मेरे चरण छूए य नहीं। मैं भिखारी की तरह उसे देख रहा था। वह थोडा-सा झुका। मेरी आशा उठी। पर वह फिर सीधा हो गया। मैं बुझ गया। उसने फिर जी कदा करके कोशिश की। थोडा झुका। मेरे पाँवो में फडकन उठी। फिर वह असफल रहा। वह नमस्ते करके ही चला गया। उसने अपने साथी से कहा होगा- तुम भी यार, कैसे टूच्चो के चरण छूते हो।
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