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Vinay Patrika

Vinay Patrika

by Yogendra Pratap Singh

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Binding

Language: Hindi

Number Of Pages: 344

Binding: Hardcover

आत्म निवेदन का सीधा सम्बन्ध अन्तःकरण के आयतन से है । इस तरह की रचनाओं में आत्म संवाद झलकता है । सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य के इतिहास में तुलसीदास की ' विनयपत्रिका ' और निराला की ' अणिमा ' से लेकर ' सांध्‍यकाकली ' तक की रचनाओं में यह स्वर विशेष रूप से सुनाई पड़ता है । अन्तर्मुखी होकर किया गया आत्मविश्लेषण, अन्तर्द्वन्द्वों की गहराई, निर्भय होकर की गई आत्म समीक्षा और सामाजिकता इन रचनाओं को अपने युग का प्रतिनिधित्व प्रदान करती हैं । तुलसीदास के ' हौं ' और निराला के ' मैं ' की प्रकृति, घनत्व और आत्मविस्तार का धरातल उन्हें भिन्न कालखण्डों में भी समानधर्मा बनाता है-' उत्पस्यतेकोअपि समानधर्मा, कालोहयं- निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ' । ' विनय-पत्रिका ' और निराला की परवर्ती रचनाओं में अभिव्यक्त विनय- भावना कपोल कल्पना या आत्म- प्रवंचना नहीं है । यह दोनों कवियों के जीवन की गाड़ी कमाई और सर्जनात्मक उपलब्धि है । दार्शनिक स्तर पर जीवन-जगत के प्रति द्वन्द्वात्मक अन्तर्दृष्टि एवं ' अखिल कारूणिक मंगल ' के प्रसार की कामना ने भक्ति का साधारणीकरण कर दिया है । तुलसीदास का ' हौं ' एवं निराला का ' मैं, अपने समाज से अन्तःक्रिया करते हुए बना है । आत्म-मुक्ति आत्म-प्रसार की भावना से अविच्छिन्न है । दोनों की विनय भावना का अंत न तो भाग्यवाद में होता है और न ही निराशा में । इस दृष्टि से ' विनय पत्रिका ' का अंतिम पद और निराला की अंतिम रचना सहज तुलनीय है ।
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