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Wo Phir Nahi Aai
Wo Phir Nahi Aai
by Bhagwaticharan Verma
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Number Of Pages: 95
Binding: Paperback
"लेकिन शायद हम झूठ से अलग रह ही नहीं सकते | हमारा सामाजिक जीवन भी तो एक तरह का व्यापार है -- आर्थिक न भी सही, भावनात्मक व्यापार, यद्यपि यह अर्थ हमारे अस्तित्व से ऐसे बुरी तरह चिपक गया है कि हम इससे भावना को मुक्त रख ही नहीं पाते | इस व्यापार में माल नहीं बेचा जाता या ख़रीदा जाता, बल्कि भावना का क्रय-विक्रय होता है | हमारा समस्त जीवन ही लेन-देन का है, और इसलिए झूठ की इस परंपरा को तोड़ सकने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है | सामाजिक शिष्टाचार निभाने के लिए मैं निकल पड़ा | और कोई काम भी तो नहीं था मेरे पास |" नारी सनातन काल से पुरुष की लालसा का केंद्र है। जीवन के संघर्षों में फँसकर अभागी नारी को संसार के प्रत्येक छल-कपट का सहारा लेना पड़ता है। किंतु आधुनिक जीवन-संघर्षों की विषमता में ममता का संबल जीवन-नौका के लिए महान् आशा है। भगवती बाबू का यह उपन्यास आकार में छोटा होकर भी अपनी प्रभावशीलता में व्यापक है, जिसकी गूँज देर तक अपने भीतर और बाहर महसूस की जा सकती है।
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